देवार जाति बड़ी कला प्रवीण जाति है

 

संवाददाता लक्ष्मी रजक

खैरागढ़। खैरागढ़ छत्तीसगढ़ की धरती प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से जितनी सुघड़ है, उससे कहीं अधिक यह सांस्कृतिक दृष्टि से सुघड़ है ऊँचे-ऊँचे पहाड़, हरे-भरे जंगल, सदानीरा लहराती नदियाँ, उर्वरा धरती, धरती की कोख में छिपी खनिज संपदाओं के विशाल भण्डार इसकी प्राकृतिक सम्पदा के प्रतीक हैं यह लोक साहित्य और लोक संस्कृति का भी अक्षय कोष है

 

छत्तीसगढ़ की खैरागढ़ जिला के अंतर्गत नवागांव कला में नवरात्रि के पावन पर्व में देवार जनजाति के माध्यम से जवारा विसर्जन अपनी संस्कृति और कलाओं को बिखरते हुएं बडे हुए सुंदर ढंग देवार जनजाति के माध्यम से किया गया है जिसमें महिलाएं जोत जवारा लेकर और पुरुष बैरंग हाथो में लेकर नाचते-गाते घर से लेकर नदी तक जवारा विसर्जन करते गए ।

घुमन्तु जाति देवार आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से सुदृढ़ नहीं हैं किन्तु यह सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न हैं इनकी कला इनके जीवकोपार्जन का साधन है देवारों की निरीहता आज भी लगभग वैसी है, जैसे पहले थी आज भी ये खानाबदोश जिन्दगी जीते हैं एक गाँव से दूसरे गाँव में डेरा डालना इनकी मजबूरी है एक ही स्थान पर स्थायी रुप से बसना इन्हें गवारा नहीं गाँव के बाहर किसी नदी या तालाब के किनारे खुले मैदान में रहना इन्हें पसंद है

इनके ठहरने का स्थान देवार डेरा कहलाता है, जो कुछ खपचियों की सहायता से पुराने कपड़ों से बना होता है देवार डेरा अर्थ वलयाकार होता है, जिसमें भीषण गर्मी, वर्षा और कंपकंपाती ठंड का ये सामना करते हैं खुले में खाना बनाना एक खंभे में रस्सी के सहारे बर्तनों को ढाँग कर रखना तथा अपने देवी-देवताओं को घेरकर सुरक्षित रखना ये भली भाँति जानते हैं

सुवा, करमा, ददरिया, पंथी, छेरछेरा, फाग, भोजली, गौरा आदि तथा लोक गाथाओं में पंडवानी, भरथरी, ढ़ोला-मारू, गोपी-चंदा, गुजरी गहिरिन, नगेसर कैना, दसमत कैना जैसी विश्व प्रसिद्ध लोकगाथाओं की गायन परम्परा आज भी इसकी सांस्कृतिक सम्पन्नता के प्रमाण हैं यहाँ की लोक संस्कृति का रंग इंद्रधनुषी है इसे पहले इन्दधनुषी रंग देने में यहाँ की घुमन्तु जातियों का बड़ा योगदान है जिनमें देवार, घुमन्तु जाति का अग्रगण्य स्थान है

देवार छत्तीसगढ़ की घुमन्तु जाति है इस जाति के द्वारा गाये जाने वाले गीत देवार गीत कहलाते हैं देवार जाति बड़ी कला प्रवीण जाति है स्त्री हो या पुरूष ये नृत्य व गायन कला में पारंगत होते हैं पुरूष रूंजू नामक लोक वाद्य बजाते हैं मांदर बजाने में वे दक्ष होते हैं जबकि महिलायें गीत गाकर नृत्य करती हैं देवार बालाओं का आकर्षण ही अलग होता है गायन व नृत्य की विशेष शैली के कारण इनकी कला अपनी पृथक पहचान रखती है

पुरूष कलाकार गाथा गायन करते हैं लंबी-लंबी कथाएँ इन्हें कंठस्थ रहती हैं ये गरीबी के कारण शिक्षा व आधुनिक जीवन शैली से कोसों दूर हैं निर्धनता का अभिशाप झेलते ये देवार कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं साथ ही बंदर व सांप की कलाबाजी दिखाकर भीख मांगते हैं सुअर पालन इनका जातीय व्यवसाय है देवार महिलायें गोदना गोदती हैं देवार करमा देवार गीतों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है

देवार गाथा गायन का एक अंश –

चिरई में सुंदर रे पतरेंगवा, साँप सुंदर मनिहार
रानी म सुंदर दसमत कैंना, रुप मोहे संसार
ए सीयरी दिनानाथ
नवलाख ओड़िया नवलाख ओड़निन
डेरा परे सरी रात
ओड़निन टूरी ठमकत रेंगय
गिर गए पेट के भार
पांच मुड़ा के बेनी गंगाले
खोंचे गोंदा फूल
नवलाख ओड़िया नवलाख ओड़नीन
कोड़य सागर के पार

देवार हिन्दू धर्म को मानते हैं और हिन्दू धर्म में संस्कारों का बहुत महत्व है देवार भी संस्कारों से अपने सामाजिक जीवन को संस्कारित करते हैं ये हिन्दूओं के सारे त्यौहार मनाते हैं, मनाने के ढंग भले ही उनके अपने होते हैं, प्रत्येक त्यौहार नाच-गाने, मद्य, माँस के साथ ही मनाया जाता है ये होली, दीवाली, राखी, करमा आदि त्यौहार बड़े उत्साह से मनाते हैं होली के समय स्त्री-पुरूष मिलगर गाते नाचते हैं।

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